Friday, December 28, 2012

ऐ सुकून ! कहाँ है तू ?

ऐ सुकून ! कहाँ है तू ?

थक गया हूँ तुझे ढूंढते हुए !


बचपन में कहा कि किताबों में मिलेगा ... सारे पन्ने पद डाले बीस साल ...
एक ही लफ्ज़ को ढूंढता रहा सारी डिग्रीयों में ...

हर बार कहा कि आगे बढ़ो मिलेगा ... खोदी ज़मीन हर मील के पत्थर पर ...

भटक रहा हूँ रेगिस्तान में एक मृग की तरह ....
हर बार एक नए नखलिस्तान की तलाश ...
कुछ वक़्त का आराम, पर सुकून कहाँ ?

थोडा सा बेपरवाह होना चाहता हूँ, देखना चाहता हूँ दुनिया को एक बच्चे की नज़र से ...
जिसे सुकून ना ढूंढना पड़े मार्कशीट या सैलरी-स्लिप के अंकों में ...

ना भागना पड़े एक नए नखलिस्तान की अंतहीन दौड़ हर रोज़ ...

बारिश की फुहारों का रिमझिम संगीत और खुशनुमा हवा ...
महसूस करूँ वो पल जब आगे कोई दौड़ न हो ...

वो पल सुकून का , जब ज़िन्दगी लगे मुकम्मल !!!!!

-एक कॉर्पोरेट कवि की कविता  

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