Saturday, October 8, 2022

अकेले पेड़ों का तूफान - विजयदेवनारायण साही - Improvised poem by Swapnil Tiwari

 फिर तेजी से तूफ़ान का एक झोंका आया

और सड़क के किनारे खड़े

सिर्फ एक पेड़ को हिला गया

शेष पेड़ गुमसुम देखते रहे

उनमें कोई हरकत नहीं हुई।

जब एक पेड़ झूम-झूम कर निढाल हो गया

पत्तियाँ गिर गयीं

टहनियाँ टूट गयीं

तना ऐंचा हो गया

तब हवा आगे बढ़ी

उसने सड़क के किनारे दूसरे पेड़ को हिलाया

शेष पेड़ गुमसुम देखते रहे

उनमें कोई हरकत नहीं हुई।


सब सोचते रहे, मुझे क्या ?


हवा, एक एक कर सारे पेड़ों को हिलाती गयी, तनों को तोड़ती गयी, बाकी सारे पेड़ खड़े गुमसुम देखते ही रहे । 


अंतिम दो पेड़ में से एक पेड़ को हवा ने हिलाना और गिराना शुरू किया, तब भी आखिरी पेड़ सोचता रहा, 


मैं बचा रहूँगा ! मुझे क्या ?


हवा सारे पेड़ों की मूर्खता पर मन ही मन हंसती रही,


फिर वो आगे बढ़ी और वहाँ खड़े आखिरी पेड़ को भी जड़ से उखाड़ दिया ।


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