Monday, November 19, 2012

मसरूफ़ !

मसरूफ़ 

इस मसरूफ़ियत से भरी दुनिया से बहार झांक कर तो देख ....
जिंदगी कड़ी है तेरे इंतज़ार में ...और सचमुच बहुत ख़ूबसूरत  है वो  !!!

कभी सूरज की मीठी धूप सेंकी है ?
किसी मुस्कुराते हुए बच्चे को देख कर कितनी बार अनदेखा किया है ? कि दिमाग कहीं और ही मसरूफ़ था !!!

रेलगाड़ी में बैठे कभी बाहर की भीगी हरियाली आँखों में उतरी है ? या तब भी मुआ मन माया की उधेड़बुन में ही शरीक़ था ?

आखिरी बार कब सब कुछ भूल कर पूरी गहरी सांस ली है इत्मीनान की ?
चेहरे पर सच्ची मुस्कान बिना किसी कारण के कब आई थी ? जब तुम्हारी सांस में पूरी साफ़ आत्मा की गहरायी थी ?

कभी सूरज को चढ़ते और ढलते देख मन प्रफ्फुलित हुआ है ? कब किसी अनजान की मदद कर उसके मन को छुआ है ?

ये सब देना चाहती है ज़िन्दगी तुझे, उसे मौका तो दे ....
मसरूफियत को भुला कुदरत को महसूस कर, उसे अपने में समेट ले ....

ज़िन्दगी की भागदौड़ में अंतिम पड़ाव का पता भी नहीं चल पाएगा ; और उपरवाले के घर तेरे डेबिट-क्रेडिट का हिसाब तेरी पासबुक से नहीं लिया जाएगा !!!!!!

-एक कॉर्पोरेट कवि की कविता !!!!






जीवन का प्रारब्ध

जीवन का प्रारब्ध (Destiny)

ज़िन्दगी क्या कश्मकश है .... हर तरफ धुआं है !

कल जो था क्या तूने बनाया था ? उन मोड़ों पर जो मील है क्या तूने सजाया था ?
फिर आने वाले कल में क्यों मन विचलित हुआ है ? क्योंकर इतना धुआं है ?

अपने प्रारब्ध (Destiny) को पाने को हर तरफ भटक रहा है ....
गिरते-पड़ते-उठते, फिर धूल को झटक रहा है ....
प्रारब्ध लगता ही नहीं पहचाना हुआ है ... हर तरफ धुआं है ...

क्या है अनुकर्णीय , क्या है निषेध ... इसमें दुनियादारी के दिमाग को लगाया हुआ है ...
आत्मा को कभी नहीं छुआ है ... हर तरफ धुआं है ....

सजग, तेज़, चतुर, चालाक बना ऐंठा  हुआ है ....
इतनी सजगता की अंतर्मन एक गहरा कुआँ है ...जिसमे सिर्फ धुआं है ...

बाहर छोड़ के अन्दर झाँक , अपना प्रारब्ध वहां ही पाएगा ....
अन्दर का प्रकाश जब बहार की पवन से मिलेगा, धुआं छंटता चला जाएगा !!!!!

-एक कॉर्पोरेट कवि की कविता ! 

लड़े जा रहा हूँ !


लड़े जा रहा हूँ !
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ज़िन्दगी की भागम भाग में हम कितने ही मूल्यवान पलों को खो देते हैं ! बस एक अनजानी जीत को पाने की होड़ में ! फिर अंत में मिलता क्या है ? इसी उधेड़बुन पर कुछ पंक्तियाँ मैंने लिखी हैं ! पसंद आये तो कमेंट में ज़रूर बताएं ! और विडियो like और दूसरों से शेयर करें !



Read lines ....
लड़े जा रहा हूँ !
दुनिया की इस भीड़ में, अकेला निहत्था, कुछ और अकेले निहत्थे लोगों से; सिर्फ इस डर में, कि कहीं हार ना जाऊँ !

सोचता हूँ कि जीतना किसे चाहता हूँ ? जीत कैसी होती है, पता नही; फिर भी बस लड़े जा रहा हूँ
!
कभी लगता है कि क्यों ना रूक जाऊँ ; पर फिर आशंका उठाती है सिर, कि वो ना रुकेंगे ..... डर लगता है कि हार ना जाऊँइसलिए बस लड़े जा रहा हूँ ......

इस लड़ाई में खो ना बैठूँ, कुछ मुस्कुराते लम्हे, मेरी बेटी कि किलकारियों से आते हुए, या परिवार के साथ के उन्मुक्त ठहाके ....
पर शायद उनके लिए ही, लड़े जा रहा हूँ ....

इस लड़ाई में लड़ते-लड़ते, बेटी पराई हो गई , बेटे की अपनी एक लड़ाई हो गई ,परिवार कहीं छूट गया, बीवी की दुनिया उसकी तनहाई हो गई .... अकेला तन्हा हूँ मैं एक ख़ालीपन के साथ .... अब इस ख़ालीपन से लड़ने के लिए ही फिर, लड़े जा रहा हूँ ............ !


--Swapnil Tiwari

खुश रहना सरल है, कैसे ? देखें यह वीडियो ।

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